धरती के आबा भगवान बिरसा मुंडा: जिन्होंने 25 साल की उम्र में कर दिए थे अंग्रेज़ों के दांत खट्टे

भगवान बिरसा मुंडा: ‘जल, जंगल, जमीन’ के लिए महाविद्रोह (उलगुलान) छेड़ने वाले जनजातीय नायक की कहानी

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में बिरसा मुंडा (Birsa Munda) का नाम एक ऐसे महानायक के रूप में दर्ज है, जिन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आदिवासी समाज की दशा और दिशा बदलकर एक नए सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात किया।

आज 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती है, जिसे ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

बिरसा मुंडा आदिवासी समाज के ऐसे नायक रहे, जिनको जनजातीय लोग आज भी गर्व से याद करते हैं. आदिवासियों के हितों के लिए संघर्ष करने वाले बिरसा मुंडा ने तब के ब्रिटिश शासन से भी लोहा लिया था।

उनके योगदान के चलते ही उनकी तस्वीर भारतीय संसद के संग्रहालय में लगी हुई है। ये सम्मान जनजातीय समुदाय में केवल बिरसा मुंडा को ही अब तक मिल सका है। बिरसा मुंडा का जन्म झारखंड के खूंटी ज़िले में हुआ था।

बात नवंबर, 1897 की है। बिरसा मुंडा को पूरे 2 साल 12 दिन जेल में बिताने के बाद रिहा किया जा रहा था। उनके दो और साथियों–डोंका मुंडा और मझिया मुंडा-को भी छोड़ा जा रहा था।

ये तीनों साथ-साथ जेल के मुख्य गेट की तरफ़ बढ़ रहे थे। जेल के क्लर्क ने रिहाई के कागज़ात के साथ कपड़ों का एक छोटा-सा बंडल भी दिया।

बिरसा ने अपने पुराने सामान पर एक नज़र डाली और वो ये देख कर थोड़े परेशान हुए कि उसमें उनकी चप्पल और पगड़ी नहीं थी।

जब बिरसा के साथ डोंका ने पूछा कि बिरसा की चप्पल और पगड़ी कहाँ है, तो जेलर ने जवाब दिया कि कमिश्नर फ़ोर्ब्स के आदेश हैं कि हम आपकी चप्पल और पगड़ी आपको न दें क्योंकि सिर्फ़ ब्राह्मण, ज़मींदारों और साहूकारों को ही चप्पल और पगड़ी पहनने की इजाज़त है।

बिरसा के साथी कुछ कहते इससे पहले ही बिरसा ने अपने हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने को कहा। जब बिरसा और उनके साथी जेल के गेट से बाहर निकले तो क़रीब 25 लोग उनके स्वागत में खड़े थे।

उन्होंने बिरसा को देखते ही नारा लगाया, ‘बिरसा भगवान की जय’!

इस पर बिरसा ने कहा आप सबको मुझे भगवान नहीं कहना चाहिए। इस लड़ाई में हम सब बराबर हैं।

तब बिरसा के साथी भरमी ने कहा हमने आपको एक दूसरा नाम भी दिया था ‘धरती आबा.’ अब हम आपको इसी नाम से पुकारेंगे।

झारखंड के सबसे सम्‍मानित व्‍यक्ति

बिरसा मुंडा ने बहुत कम उम्र में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ विद्रोह का बिगुल बजा दिया था। उन्होंने ये लड़ाई तब शुरू की थी जब वो 25 साल के भी नहीं हुए थे. उनका जन्म 15 नवंबर, 1875 को मुंडा जनजाति में हुआ था।

उन्हें बाँसुरी बजाने का शौक था। अँग्रेज़ों को कड़ी चुनौती देने वाले बिरसा सामान्य कद-काठी के व्यक्ति थे, उनका क़द केवल 5 फ़ीट 4 इंच था।

जॉन हॉफ़मैन ने अपनी किताब ‘इनसाइक्लोपीडिया मंडारिका’ में लिखा था, “उनकी आँखों में बुद्धिमता की चमक थी और उनका रंग आम आदिवासियों की तुलना में कम काला था। बिरसा एक महिला से शादी करना चाहते थे, लेकिन जब वो जेल चले गए तो वो महिला उनके प्रति ईमानदार नहीं रही, इसलिए बिरसा ने उसे छोड़ दिया।”

शुरू में वो बोहोंडा के जंगलों में भेड़ें चराया करते थे। सन् 1940 में झारखंड की राजधानी रांची के नज़दीक रामगढ़ में हुए कांग्रेस के सम्मेलन में मुख्य द्वार का नाम बिरसा मुंडा गेट रखा गया था.।

सन् 2000 में बिरसा मुंडा के जन्मदिन की तारीख़ पर ही झारखंड राज्य की स्थापना की गई थी।

संघर्ष की चिंगारी:

  • शिक्षा और अनुभव: उन्होंने चाईबासा के जर्मन मिशनरी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। यहीं उन्होंने देखा कि कैसे ईसाई मिशनरियां और ब्रिटिश अधिकारी आदिवासी संस्कृति और जीवनशैली में हस्तक्षेप कर रहे थे।

  • शोषण का चक्र: ब्रिटिश राज की भू-राजस्व नीतियों ने उनकी पारंपरिक खुंटकट्टी व्यवस्था को तोड़ दिया। दिकुओं (बाहरी साहूकार और जमींदार) ने उनकी ज़मीनें छीन लीं, और आदिवासियों को बंधुआ मजदूर (बेगारी) बनने पर मजबूर कर दिया।

  • सरदार आंदोलन का प्रभाव: युवा बिरसा, सरदार आंदोलन से प्रभावित हुए, जिसका मुख्य नारा था— “साहब-साहब एक टोपी है” (यानी, सभी गोरे—अधिकारी हों या मिशनरी—एक जैसे शोषक हैं)।

2. बिरसाइत धर्म और ‘भगवान’ का उदय (1895)

शोषण के इस दौर में, बिरसा ने महसूस किया कि सिर्फ राजनीतिक लड़ाई काफी नहीं है, बल्कि समाज को आंतरिक रूप से भी मजबूत करना होगा।

  • सामाजिक सुधार: 1895 में, उन्होंने ‘बिरसाइत धर्म’ की स्थापना की। उन्होंने मुंडाओं और उरांवों को अंधविश्वासों, पशु बलि, और शराब पीने जैसी सामाजिक बुराइयों से दूर रहने का उपदेश दिया।

  • नई पहचान: बिरसा ने सिंगबोंगा (सूर्य देवता) को एकमात्र ईश्वर मानने पर जोर दिया और आदिवासियों को अपनी मूल संस्कृति और परंपराओं की ओर लौटने को प्रेरित किया। उनके उपदेशों और चमत्कारी व्यक्तित्व के कारण, उन्हें जल्द ही लोग ‘धरती के आबा’ और ‘भगवान’ कहकर पुकारने लगे। यह चरण आदिवासियों को धार्मिक और सामाजिक रूप से एकजुट करने का आधार बना।

3. उलगुलान: महाविद्रोह का उद्घोष (1899-1900)

धार्मिक जागरण के बाद, बिरसा मुंडा ने राजनीतिक क्रांति का बिगुल फूंका।

  • विद्रोह का लक्ष्य: इस आंदोलन का मुख्य नारा था: “अबुआ दिशुम, अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा राज)। यह नारा आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन पर उनके पैतृक अधिकार वापस दिलाने और ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने का आह्वान था।

  • प्रारंभ: 24 दिसंबर 1899 को, क्रिसमस की पूर्व संध्या पर, बिरसा मुंडा ने मुंडा जाति का शासन स्थापित करने के लिए महाविद्रोह का ऐलान किया।

  • गुरिल्ला युद्ध: हजारों आदिवासी बिरसा मुंडा के नेतृत्व में संगठित हुए। वे परंपरागत हथियारों—तीर, कमान, और कुल्हाड़ी—के साथ ब्रिटिश पुलिस थानों, सरकारी इमारतों और जमींदारों पर हमला करने लगे। यह एक व्यापक गुरिल्ला युद्ध था, जिसने छोटा नागपुर क्षेत्र के सिंहभूम, खूंटी, तमाड़, और बानो जैसे इलाकों को थर्रा दिया।

  • प्रभाव: बिरसा का उलगुलान विद्रोह, 19वीं सदी के सबसे संगठित और व्यापक जनजातीय आंदोलनों में से एक था। इसने ब्रिटिश सरकार को आदिवासियों की भूमि संबंधी समस्याओं पर ध्यान देने के लिए मजबूर किया, जिसका परिणाम बाद में छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (CNT Act) के रूप में सामने आया।

4. गिरफ्तारी और शहादत

ब्रिटिश हुकूमत बिरसा के इस महाविद्रोह से भयभीत हो गई। उन्हें पकड़ने के लिए भारी इनाम की घोषणा की गई।

  • गिरफ्तारी: अंततः, फरवरी 1900 में चक्रधरपुर के जामकोपाई जंगल से उन्हें सोते समय गिरफ्तार कर लिया गया।

  • शहादत: बिरसा मुंडा को रांची जेल में डाल दिया गया। मात्र 25 साल की उम्र में, 9 जून 1900 को जेल में ही उनका निधन हो गया। आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, उनकी मृत्यु हैजा (Cholera) से हुई, लेकिन कई इतिहासकार मानते हैं कि उन्हें धीमा जहर दिया गया था।

बिरसा मुंडा का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनका संघर्ष आज भी भारत में जनजातीय अधिकारों, आत्म-सम्मान और जल, जंगल, जमीन के संरक्षण के लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। उनकी जयंती को अब जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाकर राष्ट्र उन्हें नमन करता है।

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