समाजवादी पार्टी: सामाजिक न्याय की लौ से राजनीतिक संघर्ष की कहानी

लखनऊ: अक्टूबर 1992 का वह दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया अध्याय जोड़ने वाला था। लखनऊ के ऐतिहासिक बेगम हजरत महल पार्क में सैकड़ों समर्थकों के बीच समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) का जन्म हुआ। यह कोई साधारण सभा नहीं थी, बल्कि एक वैचारिक क्रांति का प्रतीक थी, जहां पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह की जनता दल से नाराजगी और मंडल-कमंडल की आग में तपकर निकली एक नई ताकत ने आकार लिया।

आज, जब हम इसकी 33वीं वर्षगांठ मना रहे हैं (2025), तो यह पार्टी न केवल उत्तर प्रदेश की सत्ता की कुंजी बनी रही, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी सामाजिक न्याय की आवाज बनी। लेकिन इस यात्रा में उतार-चढ़ाव, पारिवारिक कलह और गठबंधनों की रस्साकशी ने इसे एक जीवंत राजनीतिक नाटक बना दिया। आइए, इसकी स्थापना से लेकर वर्तमान तक की पूरी कहानी को समझें।

गठन का पृष्ठभूमि: क्यों और कैसे बनी एसपी?

समाजवादी पार्टी का गठन जनता दल के विघटन की आग में तपे हुए नेताओं की नाउम्मीदी से हुआ। 1980 के दशक के अंत में, वी.पी. सिंह सरकार के मंडल आयोग लागू करने के बाद पिछड़े वर्गों में जागृति तो आई, लेकिन पार्टी के भीतर गुटबाजी बढ़ गई। मुलायम सिंह यादव, जो जनता दल के एक प्रमुख स्तंभ थे, को लगने लगा कि राष्ट्रीय स्तर की यह पार्टी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में स्थानीय मुद्दों को नजरअंदाज कर रही है। खासकर बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान जनता दल की अस्पष्ट नीति ने मुलायम को मजबूर कर दिया। 1992 में, बाबरी विध्वंस से महज कुछ महीने पहले, मुलायम ने जनता दल से औपचारिक रूप से नाता तोड़ लिया। उनके साथ 22 विधायक, जो जनता पार्टी विधायी दल का हिस्सा थे, स्पीकर को पत्र देकर पार्टी विभाजन की सूचना दी।

यह गठन सामाजिक न्याय की मजबूत नींव पर टिका था। राम मनोहर लोहिया की समाजवादी विचारधारा से प्रेरित मुलायम का मानना था कि पिछड़े वर्ग (ओबीसी), दलित और अल्पसंख्यकों (खासकर मुसलमानों) को एकजुट कर ही सच्चा लोकतंत्र मजबूत हो सकता है। पार्टी का घोषणा-पत्र इसी पर केंद्रित था: भूमि सुधार, शिक्षा का प्रसार, और जातिगत भेदभाव का अंत। बेगम हजरत महल पार्क में हुई उस सभा में मुलायम ने कहा था, “हम समाजवाद की लौ को बुझने नहीं देंगे।” यह न केवल एक राजनीतिक कदम था, बल्कि उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण-दलित गठजोड़ के खिलाफ यादव-मुस्लिम समीकरण की शुरुआत भी थी।

स्थापना के समय के दिग्गज: मुलायम के कंधे पर साथी

मुलायम सिंह यादव इस पार्टी के संस्थापक और प्रेरणा स्रोत थे, लेकिन वे अकेले नहीं थे। सह-संस्थापक के रूप में बेनी प्रसाद वर्मा का नाम प्रमुख है, जो जनता दल के ही एक वरिष्ठ नेता थे और मुलायम के साथ लोहिया की विचारधारा को उत्तर प्रदेश की मिट्टी में उतारने के मिशन में जुड़े। स्थापना सभा में अन्य दिग्गजों में आजम खान (रामपुर से), बलराम सिंह यादव (कानपुर से), और रेवती रमन सिंह जैसे नेता शामिल थे, जो बाद में पार्टी के स्तंभ बने। ये सभी पूर्व जनता दल के विधायक थे, जिन्होंने मुलायम के नेतृत्व में नई पार्टी का दम भरा। पार्टी का पहला राष्ट्रीय सम्मेलन नवंबर 1992 में ही कानपुर में हुआ, जहां इन नेताओं ने संगठन की रूपरेखा तय की। मुलायम की सादगी और किसान पृष्ठभूमि ने इन्हें एकजुट किया, लेकिन जल्द ही यह छोटा समूह उत्तर प्रदेश की राजनीति का तूफान बन गया।

उतार-चढ़ाव की रोलरकोस्टर यात्रा: प्रमुख घटनाएं और सबक

एसपी की कहानी सफलताओं की चमक और असफलताओं के कांटों से भरी है। स्थापना के ठीक एक साल बाद, 1993 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कमाल कर दिया। बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के साथ गठबंधन कर 109 सीटें जीतीं और मुलायम चौथी बार मुख्यमंत्री बने। यह सरकार मात्र 11 महीने चली, लेकिन बाबरी विध्वंस के बाद कारसेवकों पर गोली चलाने का फैसला (जिसे मुलायम ‘धर्मनिरपेक्षता की रक्षा’ कहते थे) ने पार्टी को मुसलमानों का मजबूत समर्थन दिलाया।

1995 में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव में 20 सीटें जीतकर राष्ट्रीय पहचान बनी। उसी साल मुलायम को देवे गौड़ा और गुजराल सरकार में रक्षा मंत्री बनाया गया, जो पार्टी के लिए बड़ा सम्मान था। 2002-2003 में फिर सीएम बने, लेकिन 2007 में बीजेपी-बीएसपी गठजोड़ से हार गए। असली ऊंचाई 2012 में आई, जब अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने 224 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया। लैपटॉप वितरण, किसान आबादी और बुनियादी ढांचे पर फोकस ने युवाओं को लुभाया। लेकिन यह सत्ता भी विवादों से घिरी रही—सड़क हादसे, कानून-व्यवस्था की खराबी और बलात्कार जैसे संवेदनशील मुद्दों पर असंवेदनशील बयानों ने आलोचना खड़ी की।

उतार की शुरुआत 2014 के लोकसभा चुनाव से हुई, जहां मात्र 5 सीटें मिलीं। असली झटका 2017 का था: 47 सीटों पर सिमट गई पार्टी। यहां पारिवारिक कलह ने सबकुछ बदल दिया। मुलायम के भाई शिवपाल यादव और बेटे अखिलेश के बीच खुली जंग छिड़ गई। शिवपाल को मंत्री पद से हटाने, अखिलेश को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने जैसे फैसलों ने पार्टी को दो फाड़ कर दिया। मुलायम ने शिवपाल का साथ दिया, लेकिन अंततः अखिलेश की जीत हुई। 2019 में बीएसपी गठबंधन के बावजूद 5 सीटें ही मिलीं। लेकिन 2022 में मुलायम की मृत्यु (अक्टूबर में) ने पार्टी को भावुक एकजुटता दी—अखिलेश फिर अध्यक्ष बने।

2024 का लोकसभा चुनाव एसपी के लिए पुनरागमन था। इंडिया गठबंधन में कांग्रेस के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश की 80 में से 43 सीटें जीतीं, जिसमें 37 एसपी की। ‘पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक’ (पीडीए) फॉर्मूले ने फिर से जान फूंकी। लेकिन चुनौतियां बरकरार हैं: परिवारवाद का आरोप, संगठनात्मक कमजोरी और बीजेपी की मजबूत मशीनरी।

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