लालू की लोकप्रियता से डर! 1995 में चुनाव आयोग के रवैये के ख़िलाफ़ शरद यादव की लोकसभा में तीखी बहस

डॉ. जयंत जिज्ञासु  

लालू जी की अपार लोकप्रियता और जनता के बीच साख को मिटाने के लिए चुनाव आयोग का सहारा लिया गया। उसके रवैये पर मार्च 1995 में शरद यादव जी ने जनता दल की ओर से लोकसभा में ज़बर्दस्त बहस की। कुछ बातें बड़ी मुश्किल से हो पाती हैं। उसके लिए कनविक्शन और एसर्शन चाहिए। सारे नियम न्याय के लिए होते हैं। पर, अगर ऑटोनोमी और रूल का हवाला देकर उसकी आड़ में कोई ग़ैर ज़िम्मेदार व कर्त्तव्यच्युत आदमी अन्याय करने लगे, तो वहीं शरद यादव जैसे लोगों की प्रासंगिकता शुरू होती है, और स्वायत्तता का अर्थ दुनिया के सामने ठीक-ठीक खुलता है। फिर सारी चीज़ें ठिकाने पर वापस आ जाती हैं।

शरद जी कहते हैं, “यदि मान लो रिज़र्व बैंक का गवर्नर कहने लगे कि मैं स्वायत्त हूं और वो मतलब आपके बजट के अनुसार, सरकार के अनुसार नोट छापने का काम बंद कर दे, तो देश में कैसे कॉन्स्टिट्यूशन चलेगा? अगर कोई रपट केंद्र को भेजी जानी थी, तो गवर्नर द्वारा सीधे न भेज कर सरकार के ज़रिए आना चाहिए था। जब बिहार में एक सरकार है, तो फिर गवर्नर और चीफ़ इलेक्शन कमीश्नर के बीच के इस संवाद को संवैधानिक रूप से आप अप्रूव करते हैं? तिथियां बढ़ाते जाने से वहां जनता पर बोझ पर रहा है, सरकार पर बोझ पर रहा है, वहां के जो किसान हैं, सबसे ज़्यादा फ़सल का मौक़ा है, यानी एग्रीकल्चर का पीक आर (टाइम) है ये, चार-चार बार वहां के ट्रैक्टर सीज हैं, सारी बसेज़ सीज हैं। …(स्पीकर: नाउ ऑनवरड्स इट विल नॉट गो ऑन रिकॉर्ड)

अध्यक्ष जी, न जाए (रिकॉर्ड में), लेकिन यह भी नहीं हो सकता कि चुना हुआ लोकतंत्र मजबूर हो जाए एक आदमी के सामने। ये भी नहीं हो सकता। यानी हम ये भी मानने को तैयार नहीं हैं कि एक आदमी के सामने समूचा लोकतंत्र जो है, मजबूर होकर खड़ा हो जाए। यानी एक आदमी जो बुरे…जिसका दिमाग़ जो है वो अफ़सरशाही से भरा हुआ है, जो अपने चैंबर में बैठ कर के मनमानी करके नेतागिरी के चलते पॉलिटिकल डिसीज़न करता है, लोगों से गुफ़्तगू करता है, लोगों से मिलता है, षड्यंत्र करता है, फिर तारीख़ें बढ़ाता है। यानी, ऐसे आदमी को आप न कहें, आप कहें कि न हो, लेकिन ये हमारे हाथ में भी है कि हम भी यदि मर्यादा का पालन यहां नहीं करेंगे तो लोकतंत्र अध्यक्ष जी नहीं चलेगा। हम भी मर्यादा का पालन करते हैं तब कहीं लोकतंत्र का पहिया चलता है। हर आदमी की मर्यादा है, उस मर्यादा को एक बार नहीं, 99 फ़ीसदी…”

जब मणिशंकर अय्यर के अंदर का बददिमाग़ अफ़सर और वर्णवादी कुंठा जग उठी, तो शरद जी ने उस आदमी का जम्हूरी इलाज कर दिया, “ए बैठ, क्या बात करता है, चमचा कहीं का! मर्डरर ऑव डेमोक्रेसी! तुम्हारी चमचागिरी से काम नहीं चलता, तुम्हारे जैसे चमचों से देश नहीं चलता। मैं कह रहा हूं बैठ जाओ, तुम्हारे से हमको नहीं लेना है, आपसे हमको शिक्षा ग्रहण नहीं करनी है!”

शरद जी ने स्पष्टत: अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर दी, “अध्यक्ष जी, एक आदमी हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को बदनाम कर रहा है, और हम यहां बैठ कर उस लोकतंत्र की बर्बादी नहीं देख सकते!”

और फिर यही भारतीय संसद है जहां “टीएन शेषण हाय हाय” हुआ! उस समय भी कुछ लोग “हेल ईसीआई, हेल ईसीआई” कर रहे थे, तो शरद यादव जैसे कुछ लोगों ने ईसीआई के कंडक्ट को दुनिया के सामने रख दिया। तीन-तीन महीने तक तारीख़ बढ़ाते जाने से खर्च बढ़ता जा रहा था जनता पर, पार्टी पर, उम्मीदवार पर। बस समेत सारी गाड़ियां चुनाव कार्य के लिए एडवांस में ले लेने के चलते यातायात में असुविधा!

सुबह शरद जी बहुत गुस्से में थे, और फिर जब स्पीकर दोपहर में इस पर बहस को तैयार हुए, तो उन्होंने सारी बातें खोल कर रख दीं। उन्होंने कहा, “लोकतंत्र और लोकशाही एब्सट्रैक्ट चीज़ नहीं है। वह पार्टियों के ज़रिए चलती है। मैं सोच रहा हूं, इसीलिए बोल रहा हूं। 70 लाख लोग जो बाहर काम करते थे; अपने बिहार गये वोट करने। चुनाव की तारीख़ें बढ़ाने से उन्हें वापस लौटना पड़ा। उनके मन में कहीं न कहीं यह बात गयी कि हम ठीक-ठाक नागरिक नहीं हैं, हमारी इस लोकतंत्र में कोई हैसियत नहीं है। बिहार के 9 करोड़ लोगों को तंग-तबाह किया जा रहा है। और उस पर यह सदन कुछ बोले नहीं, मौन धारण कर ले, यह कैसी बात है? व्यवस्थावादी लोग ग़रीबों को मत के हक़ से परे धकेल रहे हैं। बिहार अभी बारूद के ढेर पर बैठा हुआ है।

अगर हमने एक बार वहां चीज़ों को हाथ से छोड़ दिया, तो फिर हम भी चाहेंगे तो उसे वापस जगह पर नहीं ला पाएंगे। इसलिए, बिहार जो राजनैतिक रूप से इतना चेतना संपन्न है, उसे इतनी दूर तक मत खींचो, उसे दीवार से मत सटाओ। जब ख़ुद वहां की सरकार ने आपसे मांग की थी बल की, तो गवर्नर ने सीधे ईसी को कैसे रिपोर्ट किया! 15 मार्च को वहां की विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने वाला है, और आप बीच चुनाव में लगातार तिथियां बढ़ा कर राष्ट्रपति शासन की बात कर रहे हो। यह वाजिब बात नहीं है।”

सोमनाथ चटर्जी जी ने भी जसवंत सिंह जी से अलग राय रखते हुए कहा, “कोई भी संस्था इनफ़ॉलिबल नहीं है। हम यह नहीं कह रहे कि हम यहां से सुप्रीम कोर्ट को डिक्टेट करें या इलेक्शन कमीशन को डिक्टेट करें, पर जो कुछ हो रहा है, उस पर हम बात तो करें। अपनी राय तो रखें। आख़िरकार, यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा सदन है। यहां चर्चा नहीं होगी तो कहां होगी!”

Dr. Jayant Jigyasu  

National Spokesperson, RJD. Author: द किंग मेकर

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