Rezang La War: 1962 में -30°C में 120 वीर अहीर जवानों ने कैसे 1300 चीनी सैनिकों को मार गिराया? पढ़ें शौर्य और बलिदान की अमर कहानी

18 नवंबर 1962… हिमालय की ऊँची चोटी रेजांग ला पर तापमान माइनस 30 डिग्री से भी नीचे। बर्फ़ीली हवाएँ चेहरे चीर रही थीं। उंगलियाँ इतनी जम चुकी थीं कि राइफ़ल की हर गोली निकालने के बाद उसे हाथ से ही लोड करना पड़ता था। फिर भी 13 कुमाऊँ रेजिमेंट की चार्ली कंपनी के मात्र 120 जवान डटकर खड़े थे। इन जवानों में कमांडर को छोड़कर सभी सैनिक हरियाणा के अहीर (Ahir/ यादव) पशुपालकों और किसानों के समुदायों से थे। उनके सामने थी चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की 3,000 से 5,000 सैनिकों की भारी भरकम फौज, भारी तोपखाने और असीम गोला-बारूद के साथ।

इन 120 अहीर वीरों के पास न आर्टिलरी थी, न रेडियो कनेक्शन, न ही सर्दी से बचने वाले कपड़े-जूते। सिर्फ़ पुरानी .303 राइफ़लें, कुछ लाइट मशीन गन्स और अटूट हौसला। फिर भी इन्होंने न सिर्फ़ चीनी सेना के तीन बड़े हमलों को नाकाम किया, बल्कि इतना भारी नुकसान पहुँचाया कि चीनी कमांडरों को अपने ही सैनिकों से सुनना पड़ा — “They did not retreat an inch.” (वे एक इंच भी पीछे नहीं हटे)।

इसी वीरता की वजह से चीनी सेना चुषुल घाटी में आगे नहीं बढ़ पाई। अगर रेजांग ला टूट जाता तो लेह-लद्दाख का रास्ता खुल जाता और कश्मीर घाटी पर भी खतरा मंडराने लगता था। इन 120 अहीर योद्धाओं ने अपनी आहुति देकर पूरे लद्दाख और कश्मीर को बचा लिया।

इनके कमांडर मेजर शैतान सिंह (परम वीर चक्र, मरणोपरांत) ने आंतें बाहर निकल आने के बाद भी पोस्ट नहीं छोड़ी। जब तक साँस थी, दुश्मन को निशाना बनाते रहे। आज़ भी ज़िंदा बचने वाले महान योद्धा ऑनरेरी कैप्टन राम चंद्र यादव (रेवाड़ी) जब उस दिन को याद करते हैं तो उनकी आँखें नम हो जाती हैं। वे बताते हैं कि कैसे मेजर साहब ने आखिरी साँस तक कहा था — “रामचंद्र, बटालियन पहुँचकर सबको बता देना… हम इस तरह लड़े हैं।”

वीर अहीरों की इस अदम्‍य साहस वाली लड़ाई 114 जवान शहीद हुए और 6 घायल किसी तरह बचकर आए। चीनी सेना के 1,300 से 1,500 के बीच सैनिक मारे गए। भारतीय सेना के इतिहास में एक साथ सबसे ज़्यादा वीरता पुरस्कार किसी कंपनी को मिले तो वो यही चार्ली कंपनी है — 1 परम वीर चक्र, 8 वीर चक्र, 4 सेना मेडल…

आज 18 नवंबर 2025 को, रेजांग ला की उस अमर गाथा की 63वीं बरसी पर, उन 120 वीर अहीरों को कोटि-कोटि नमन। उनकी कुर्बानी ने साबित कर दिया “संख्या से नहीं, साहस से देश बचते हैं“।

लेखक कुलप्रीत यादव ने अपनी पुस्तक ‘द बैटल ऑफ़ रेजांग ला’ (The Battle of Rezang La) में लिखा है, “13 कुमाऊँ बटालियन की चार्ली कंपनी के सैनिकों को एक परमवीर चक्र, आठ वीर चक्र, चार सेना पदक और एक मेंशन-इन-डिस्पैच से सम्मानित किया गया, जिससे यह आज तक भारतीय सेना की सबसे सम्मानित कंपनियों में से एक बन गई।”

रेजांग ला की लड़ाई: एकतरफा हमले का सामना

1962 का भारत-चीन युद्ध भारत के लिए एक दर्दनाक अध्याय था। 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सेना ने अरुणाचल प्रदेश (तब NEFA) और लद्दाख में आक्रमण शुरू किया। भारत की सेना उस समय अपर्याप्त संसाधनों से जूझ रही थी, न तो पर्याप्त हथियार थे, न ही आधुनिक तोपखाने। लद्दाख के चुषुल सेक्टर में रेजांग ला पास एक रणनीतिक महत्व वाली चोटी थी, जो चीनी सेना को चुषुल घाटी में घुसपैठ करने से रोक सकती थी। यहां तैनात थी चार्ली कंपनी, जिसमें लगभग सभी सैनिक हरियाणा के रेवाड़ी में क्षेत्र से आने वाले अहीर (यादव) समुदाय के थे। इनके कमांडर थे मेजर शैतान सिंह, जिनका नाम ही उनकी वीरता का प्रतीक था।

कंपनी में कुल 120 सैनिक थे केवल 6 अधिकारी और बाकी जवान। उनके पास केवल लाइट मशीन गन्स, राइफल्स और कुछ ग्रेनेड्स थे। कोई आर्टिलरी सपोर्ट नहीं, कोई रेडियो कनेक्शन नहीं। फिर भी, इन्होंने अपना कर्तव्य निभाया। चीनी सेना, जो पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) की इकाई थी, ने रेजांग ला पर कब्जा करने के लिए 5,000 सैनिक तैनात किए थे।

जो राइफल जवानों के पास भी उसे हर गोली चलाने के बाद लोड करना पड़ता था, जबकि ठंड इतनी कि उंगलियां जम जाएं।

उस लड़ाई में ज़िंदा बचने वाले ऑनरेरी कैप्टेन सूबेदार राम चंद्र यादव जो आजकल रेवाड़ी में रहते हैं, बीबीसी को दिए एक इंटरव्‍यू याद करते हैं, “तड़के साढ़े तीन बजे अचानक एक लंबा बर्स्ट आया ड-ड-ड-ड-ड. पूरा पहाड़ी इलाका उसके शोर से गूंज गया. मैंने मेजर शैतान सिंह को बताया कि 8 प्लाटून के सामने से फ़ायर आया है. चार मिनट बाद हरि राम का फ़ोन आया कि 8-10 चीनी सिपाही हमारी तरफ़ बढ़ रहे थे.”

सूबेदार राम चंद्र यादव

वो कहते हैं, “जैसे ही वो हमारी रेंज में आए, हमारे जवानों ने लंबा बर्स्ट फ़ायर किया है. उस में चार-पांच चीनी तो उसी समय ख़त्म हो गए और बाकी वापस भाग गए. इसके बाद मैंने अपनी लाइट मशीन गन को मोर्चे के अंदर वापस बुला लिया है. ये सुन कर मेजर साहब ने कहा कि जिस समय का हमें इंतज़ार था, वो आ पहुंचा है. हरि राम ने कहा आप चिंता मत करिए. हम सब जवान तैयार हैं. हमने मोर्चा पकड़ लिया है.”

7 पलटन के सुरजा राम ने अपने कंपनी कमांडर को इत्तला दी कि चीन के क़रीब 400 सैनिक उनकी पोस्ट की तरफ़ बढ़ रहे हैं. तभी 8 पलटन ने भी रिपोर्ट किया कि रिज की तरफ़ से करीब 800 चीनी सैनिक भी उनकी तरफ़ बढ़ रहे हैं.

मेजर शैतान सिंह ने आदेश दिया कि जैसे ही चीनी उन की फ़ायरिंग रेंज में आएं, उन पर फ़ायरिंग शुरू कर दी जाए.

सूबेदार राम चंद्र यादव बताते हैं, “जब चीनी 300 गज़ की रेंज में आए तो हमने उन पर फ़ायर खोल दिया. क़रीब 10 मिनट तक भारी फ़ायरिंग होती रही. मेजर शैतान सिंह बार बार बाहर निकल जाते थे. मैं उन्हें आगाह कर रहा था कि बाहर मत जाइए क्योंकि कोई भरोसा नहीं कि चीनियों की कब ‘शेलिंग’ आ जाए.”

वो कहते हैं, “सुरजा राम ने रेडियो पर बताया कि हमने चीनियों को वापस भगा दिया है. हमारे सारे जवान सुरक्षित हैं. उन्हें कोई चोट नहीं लगी है. हम ऊँचाई पर थे और चीनी नीचे से आ रहे थे. ये बात हो ही रही थी कि चीनियों का पहला गोला हमारे बंकर पर आ कर गिरा. मेजर शैतान सिंह ने फ़ौरन फ़ायरिंग रुकवा दी. फिर उन्होंने 3 इंच मोर्टार चलाने वालों को कोडवर्ड में आदेश दिया ‘टारगेट तोता.’ हमारे मोर्टार के गोलों से चीनी घबरा गए और ये हमला भी नाकाम हो गया.”

जब चीनियों द्वारा सामने से किए गए सारे हमले नाकामयाब हो गए तो उन्होंने अपनी योजना बदल डाली. सुबह साढ़े चार बजे उन्होंने सभी चौकियों पर एक साथ गोले बरसाने शुरू कर दिए. 15 मिनट में सब कुछ ख़त्म हो गया. हर तरफ़ मौत और तबाही का मंज़र था.

उन्होंने बताया, “15 मिनट के अंदर चीनियों ने भारतीय बंकरों में बरबादी फैला दी. उनके बंकर उजड़ गए. तंबुओं में आग लग गईं और जवानों के शरीरों के अंग कट कर इधर उधर जा गिरे. मगर इसके बाद भी मेजर शैतान सिंह अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे. जब धुँआ छंटा तो जवानों ने देखा कि ‘रिज’ के ऊपर हथियारों से लदे याक और घोड़े चले आ रहे हैं. कुछ क्षणों के लिए जवानों ने सोचा कि उन्हीं की अल्फ़ा कंपनी उनके बचाव के लिए आ रही है. वो बहुत खुश हुए पर जब उन्होंने दूरबीन लगा कर ग़ौर से देखा तो वो चीनी सैनिक निकले. तब चीनियों का तीसरा हमला शुरू हुआ और उन्होंने आ कर एक-एक सैनिक को मार दिया.”

मेजर शैतान सिंह की आंतें बाहर आईं

इस बीच मेजर शैतान सिंह की बाँह में ‘शेल’ का एक टुकड़ा आ कर लगा. उन्होंने पट्टी करवा कर अपने सैनिकों का नेतृत्व करना जारी रखा. वो ‘रिज’ पर थे तभी उनके पेट पर एक पूरा ‘बर्स्ट’ लगा. हरफूल ने लाइट मशीन गन से चीन के उस सैनिक पर फ़ायर किया जिसने शैतान सिंह पर गोली चलाई थी.

हरफूल को भी गोली लगी और उन्होंने गिरते हुए रामचंद्र से कहा कि मेजर साब को दुश्मन के हाथों मत लगने देना. मेजर शैतान सिंह अत्यधिक ख़ून बह जाने के कारण बार बार बेहोशी की हालत में चले जा रहे थे.

सूबेदार राम चंद्र यादव इस मुश्किल समय में उनके साथ थे और उन चंद लोगों में से एक हैं जिन्होंने उन्हें ज़िंदा देखा था.

राम चंद्र यादव याद करते हैं, “मेजर साब ने मुझसे कहा रामचंद्र मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है. मेरी बेल्ट खोल दो. मैंने उनकी कमीज़ में हाथ डाला. उनकी सारी आंतें बाहर आ गई थीं. मैंने उनकी बेल्ट नहीं खोली, क्योंकि अगर मैं ऐसा करता तो सब कुछ बाहर आ जाता. इस बीच लगातार फ़ायरिंग हो रही थी. बेहोश हो गए मेजर शैतान सिंह को फिर होश आया.”

यादव कहते हैं, “उन्होंने टूटती सांसों से कहा मेरा एक कहना मान लो. तुम बटालियन में चले जाओ और सब को बताओ कि कंपनी इस तरह लड़ी है. मैं यहीं मरना चाहता हूँ. ठीक सवा आठ बजे मेजर साब के प्राण निकले.”

सूबेदार राम चंद्र यादव

वो याद करते हैं, “इस बीच मैंने देखा कि चीनी सैनिक हमारे बंकरों में घुस रहे हैं और 13 कुमाऊँ के सैनिकों और चीनियों के बीच हाथों से लड़ाई हो रही है. हमारे एक साथी सिग्राम ने गोलियाँ ख़त्म हो जाने के बाद चीनियों को एक दूसरे के सिर लड़ा कर मारा. एक चीनी को उसने पैर पकड़ कर चट्टान पर दे मारा. इसके बाद 7 प्लाटून का एक सिपाही भी ज़िंदा नहीं बचा और न ही कैद हुआ.”

मेजर शैतान सिंह को एक पत्थर के सहारे लिटाया

चारों तरफ़ लाशें ऐसे बिखरी पड़ी थीं जैसे वो कपड़े की गुडि़यां हों. मेजर शैतान सिंह का टेंट बुरी तरह से तहस नहस हो चुका था. उनके दोस्त चिमन का सिर धड़ से अलग पड़ा था.

मंडोला गाँव के महेंदर सिंह की टांगें बुरी तरह से कुचली जा चुकी थीं. मैंने सूबेदार यादव से पूछा कि इस लड़ाई में 13 कुमाऊँ के 124 में से 113 जवान मारे गए. आप किस तरह इस भयानक हमले में बच पाए?

यादव ने बताया, “मैं ज़ख़्मी था और पूरी तरह से होश में था. लेकिन मेरे दिमाग़ में हरफूल की वो बात दौड़ रही थी कि मेजर साब की लाश चीनियों के हाथ नहीं पड़नी चाहिए. मैंने उनको ज़ोर से अपनी बाहों में लिया और उनके साथ एक खड्ड में लुढ़क गया. फिर मैं उन्हें अपनी पीठ पर लाद कर क़रीब 800 मीटर तक चला. फिर एक बड़े पत्थर के पास मैंने मेजर शैतान सिंह को लिटा दिया. ठीक सवा आठ बजे मेजर साब के प्राण निकले.”

वो कहते हैं, “मैंने उनके दस्ताने वहीं छोड़ दिए और उन के ऊपर बर्फ़ डाल दी, ताकि चीनी उन्हें देख नहीं पाएं. मैं नीचे क्वार्टर मास्टर के पास ये सोच कर आया कि कुछ लोगों को साथ ला कर मेजर साब की लाश ले जाउंगा. लेकिन जब मैं नीचे आया तो वहाँ हर जगह आग लगी हुई थी. हमारे ही लोगों ने उसे जला दिया था. उन्हें आदेश मिला था कि सब कुछ नष्ट करके चुशूल में बटालियन हेडक्वार्टर लौट आएं. तभी मुझे एक जीप आती दिखाई दी. मैं उस पर बैठा और वो जीप मुझे ले कर नीचे हेडक्वार्टर ले आई.”

वीरता के अमिट किस्से

  • मेजर शैतान सिंह की बहादुरी: मरणोपरांत उन्हें भारत का सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘परम वीर चक्र’ मिला। उनकी डायरी में लिखा था, “हम मरेंगे, लेकिन चुषुल नहीं देंगे।”
  • सूबेदार राम चंद्र यादव: उन्होंने अकेले 20 चीनी सैनिकों को मार गिराया।
  • नायक हुकम सिंह: घायल होने के बावजूद उन्होंने मशीन गन चलाते रहे, जब तक कि आखिरी गोली न निकल गई।
  • कुल 114 सैनिक शहीद हुए। केवल 6 जीवित बचे, जो घायल थे। चीनी पक्ष के 1,300 से 1,500 सैनिक मारे गए, जबकि भारतीय नुकसान 95% से अधिक था।

चीनी सैनिकों ने बाद में भारतीयों की वीरता की तारीफ की। एक चीनी अधिकारी ने कहा, “ये योद्धा शेरों जैसे थे।” लड़ाई के बाद, चीनी सेना ने रेजांग ला पर कब्जा कर लिया, लेकिन चुषुल घाटी बच गई।

1962 की इस लड़ाई ने 21 नवंबर को चीनी सेना को युद्ध रोकने के लिए मजबूर कर दिया यह चीन के यूनीलेटरल सीजफायर के साथ समाप्त हुआ।

……जवानों के परिजनों का हुक्‍का पानी बंद किया

बात फ़रवरी 1963 की है. चीन से लड़ाई ख़त्म होने के तीन महीने बाद एक लद्दाखी गड़ेरिया भटकता हुआ चुशूल से रेज़ांग ला जा पहुंचा. एकदम से उसकी निगाह तबाह हुए बंकरों और इस्तेमाल की गई गोलियों के खोलों पर पड़ी. वो और पास गया तो उसने देखा कि वहाँ चारों तरफ़ लाशें ही लाशें पड़ी थीं…. वर्दी वाले सैनिकों की लाशें.

जानी मानी इतिहासकार और भारतीय सेना के परमवीर चक्र विजेताओं पर मशहूर किताब ‘द ब्रेव’ लिखने वाली रचना बिष्ट रावत के अनुसार, ‘वो गड़ेरिया भागता हुआ नीचे आया और उसने भारतीय सेना की एक चौकी पर इसकी सूचना दी. जब सैनिक वहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि हर मृत भारतीय सैनिक के शरीर पर गोलियों के कई-कई ज़ख्म थे. कई अभी भी अपनी राइफ़लें थामे हुए थे. नर्सिंग असिस्टेंट के हाथ में सिरिंज और पट्टी का गोला था.”

“किसी की राइफ़ल टूट कर उड़ चुकी थी, लेकिन उसका बट उसके हाथों में ही था. हुआ ये था कि लड़ाई ख़त्म होने के बाद वहाँ भारी हिमपात हो गया और उस इलाके को ‘नो मैन्स लैंड’ घोषित कर दिया गया. इसलिए वहाँ कोई जा नहीं पाया.”

लोगों को इनके बारे में पता ही नहीं था कि इन 113 लोगों के साथ हुआ क्या था. लोगों को यहाँ तक अंदेशा था कि वो युद्धबंदी बन गए हैं. तब तक इनके नाम के आगे एक तरह का बट्टा लग गया था. उनको कायर क़रार कर दिया गया था. उनके बारे में मशहूर हो गया था कि वो डर कर लड़ाई से भाग गए थे.”

वो कहती हैं, “दो तीन लोग जो बच कर आए उनका लोगों ने हुक्का-पानी बंद कर दिया था. यहाँ तक कि उनके बच्चों को स्कूलों से निकाल दिया गया. बाद में एक एनजीओ को बहुत बड़ा अभियान चलाना पड़ा कि वास्तव में ये लोग हीरो थे, कायर नहीं थे.

वीर अहीर शहीदों की याद में बनाया गया स्‍मारक

चार्ली कंपनी के 114 शहीदों को मरणोपरांत वीर चक्र, महावीर चक्र और अन्य सम्मान मिले। हर साल 18 नवंबर को रेवाड़ी और लद्दाख में इनकी स्मृति में कार्यक्रम होते हैं। रेजांग ला पर एक स्मारक भी बनाया गया है, जहां शहीदों के नाम उकेरे गए हैं।

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